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और 'पर्वत वह्नि के अभाव से युक्त है पाषाणमय होनेसे, वह्नि रहित पर्वत के समान' ये दोनों हेतु परस्पर सत्प्रतिपक्ष हो जाते हैं। धूम हेतु वास्तव में हेत्वाभास नहीं है परंतु भ्रम से पाषाणमयत्वरूप हेतु के कारण वह्नि को अनुमिति रुक जाती है। इस उदाहरण में विशेष धर्म का अज्ञान हेतु नहीं है। वादी धूम को और प्रतिवादी पाषाणमयत्व को हेतु रूप में कहता है । दोनों हेतु परस्पर विरोधी होनेसे सत्प्रतिपक्ष हैं परंतु वह्नि और वह्नि के अभाव के साधक हेतु विशेष धम के अज्ञानरूप नहीं है । इस भेद के होने पर भी दोनों उदा. हरणों में हेतु जब दोष युक्त होता है तो वह असिद्ध से भिन्न नहीं हो सकता।
[आगम प्रमाण का निरूपण] मूलम्-आप्तवचनादाविभूतमर्थसंवेदनमागमः।
अर्थ:-आप्त पुरुष के वचन से उत्पन्न अर्थ का ज्ञान आगम है।
विवेचना:-अर्थ के सत्य स्वरूप को जो जानता है और यथार्थ ज्ञान के अनुसार अर्थ का प्रतिपादन करता है वह आप्त है । उसके वचन से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह आगम प्रमाण है। मुख्यरूप से आगम प्रमाण ज्ञानरूप है, परन्तु धोता के ज्ञान की उत्पत्ति में आप्त पुरुष का वचन कारण है इसलिए कारण में ज्ञानरूप कार्य के वाचक आगम शब्द का उपचार से प्रयोग होता है और आप्त वचन को आगम प्रमाण कहा जाता है। जिनको अर्थ का सत्य ज्ञान नहीं है अथवा सत्य ज्ञान होने पर भी लोगों को वंचित करने के लिये जो अयुक्त शब्दों का प्रयोग करते हैं वे आप्त