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करता है। यह शब्द वाचक है और यह 'अर्थ' वाच्य है इस प्रकार वाच्य-वाचकरूप सम्बन्ध को जो जानता है वह शब्द को सुनकर अर्थ को समझता है । जिसको वाच्य-वाचक भाव का ज्ञान नहीं है वह किसी पद वा वाक्य को सुनकर अर्थ को नहीं समझता-इसलिए धूम के समान शब्द भी भनुमान है।
जैन कहते हैं व्याप्ति की अपेक्षा से अर्थ का प्रतिपादन करनेके कारण शब्द, अनुमान नहीं हो सकता। जो लोग तांबा, चांदी और सोना की मुद्राओं को सदा लेते देते हैं वे रूप और परिमाण आदिके ज्ञान से झूठी और सच्ची मुद्राओं को देखकर अथवा छूकर पहचान लेते हैं। इस प्रकार का रूप, स्पर्श और शब्द हो तो मुद्रा सच्ची होती है और इससे भिन्न हो तो खोटी होती है इस नियम से वे जान लेते हैं। अर्थ के साथ सम्बन्ध होने पर इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष कहा जाता है । चक्षु से रूप का और रूप से युक्त वृक्ष आदिका, त्वचा से कोमल और कठोर स्पर्श का और स्पशवाले पुष्प आदिका, कान से तीव्र-मन्द शब्द का प्रत्यक्ष होता है । अपने विषयों के साथ सम्बन्ध होते ही इन्द्रिय ज्ञान को उत्पन्न करती हैं । प्रत्यक्ष ज्ञान को उत्पन्न करने के लिए इन्द्रियों को किसी सहकारी ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती। मुद्रा के रूप और स्पर्श अथवा शब्द का ज्ञान इंद्रिय किसी अन्य ज्ञान को अपेक्षा के बिना करती हैं। अतः रूप आदिका ज्ञान प्रत्यक्ष है। परन्तु रूप और शब्द आदि विशेष प्रकार के हों तो मुद्रा सच्ची अथवा खोटी होती है, इस नियम की सहायता से होनेवाला ज्ञान केवल इन्द्रियों से उत्पन्न नहीं है तो भी वह प्रत्यक्ष कहा जाता है।