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अवक्तव्य है । अवक्तव्य का यह तीसरा प्रकार है । अन्य अनेक प्रकार भी अवक्तव्य के हो सकते हैं। अर्थ के अवक्तव्य होने में दो कारण है-जो मुख्य हैं । दो प्रकारों से वस्तु एक काल में एकान्तरूप से सम्बन्ध नहीं रखती। एकान्त रूप में यह वस्तु का अत्यन्त अभाव अवक्तव्य होनेका एक कारण है। विरोधी दो धर्मों को प्रधान अथवा अप्रधान रूप से कहने में पद असमर्थ है यह दूसरा कारण है।
मूलम-शतृशानशौ सदित्यादौ साङ्केतिकपदेनापि क्रमेणार्थद्वयबोधनात् । अन्यतरस्वादिना कथञ्चिदुभयवोधनेऽपि प्रातिस्विकरूपेणैकपदादुभयबोधस्य ब्रह्मणापि दुरुपपादत्वात् । - अर्थः-शत और शानश् सत् है इत्यादि स्थल में साङ्केतिक पद से भी क्रम के साथ दोनों अर्थों का बोध होता है । अन्यतरत्व आदिके द्वारा किसी प्रकार दोनों का ज्ञान हो जाय तो भी प्रत्येक में होने वाले नियतरूप से दोनों का ज्ञान ब्रह्मा भी नहीं करा सकता ।
विवेचना:-प्रतिस्वं भवति इस व्युत्पत्ति के द्वारा प्रातिस्विक पद का अर्थ है-प्रत्येक में रहनेवाला असाधारण स्व. रूप। विरोधी दो अर्थों को एक काल में प्रधानता अथवा अप्रधानता के साथ कहने में कोई भी पद समर्थ नहीं है इस हेतु पर आक्षेप करते हैं। संकेत के द्वारा पद अर्थ का बोध