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३९५ श्री यशोविजयजी ने शास्त्र वार्ता समुच्चय की व्याख्या स्याद्वादकल्पलता में इस प्रकार किया है--
१-अभेदवृत्तिप्रधान्यम्-द्रव्यार्थिकनयगृहीतसत्ताधभिन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुशक्तिकस्य सदादिपदस्य काला द्यभेदविशेषप्रतिसंधानेन पर्यायार्थिकनयपर्यालोचनप्रादुर्भवच्छक्यार्थबाधप्रतिरोधः । अभेदोपचारश्च-पर्यायार्थिकनयगृहीतान्यापोहपर्यवसितसत्तादिमात्रशक्तिकस्य तात्पर्यानुपपत्या सदादिपदस्योक्तार्थ लक्षणा । ...
इसके अनुसार द्रव्याथिक नय से जब सत्ता आदि किसी एक धर्म का ज्ञान होता है, तब उससे अभिन्न अनन्तधत्मिक वस्तु में सत् आदि पद की शक्ति होती है। काल आदि के द्वारा अभेद मानने के कारण सत् आदि पद से अन्य धर्म भी वाच्य प्रतीत होते हैं। इस दशा में पर्यायाथिक नय के विचार से अन्य धर्मों को प्रतोतिरूप शक्य अर्थ में जो रुकावट आती है उसका दूर करना अमेव वत्ति की प्रधानता है। पर्यायाथिक नय के द्वारा सत आदि पद की शक्ति केवल सत्ता आदिमें प्रतीत होती है और उसका पर्यवसान अन्यापोह में होता है। इस दशामें 'सत्' पद जो असत् नहीं हैं उनका ज्ञान कराता है। केवल सत्त्व आदि धर्म में प्रतिपादन की शक्ति है इस प्रकार प्रतीत होने पर सत् आदि पद की सत्ता से भिन्न अन्य धर्मों में लक्षणा की जाती है। इस विवेचना के अनुसार अनन्त धर्मरूप शक्य अर्थों के ज्ञान में रुकावट को दूर करना
टिप्पण १ शाख वार्ता समुच्चय स्याद्वाद कल्पलता सहित पृ. २५४-प्रथम अंश,