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हैं। यदि इनका स्वरूप भिन्न न हो, तो सत्त्व असत्त्वरूप से और असत्व सत्त्वरूप से प्रतीत होना चाहिये ।
मूलम्:-स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वात् , अन्यथा नानागुणाश्रयत्वविरोधात् ।
अर्थः-(३) गुणों का आश्रय अर्थ भी भिन्न भिन्न है, यदि भिन्न न हो तो वह नाना गुणों का आश्रय नहीं हो सकता।
मूलम्:-सम्बन्धस्य च सम्बन्धिभेदेन भेददर्शनात् , नानासम्बन्धिभिरेककसम्बन्धाघटनात् ।
अर्थः-(४) सम्बंधियों के भेद से सम्बन्ध का भेद भी देखा जाता है। अनेक सम्बन्धी एक स्थान में एक सम्बन्ध की रचना नहीं कर सकते।
विवेचना:-प्रतियोगी और अनुयोगी के भेव से सम्बन्ध का भेद देखा जाता है । भूतल और घट का जो संयोग है उससे पर्वत और अग्नि का संयोग भिन्न है। यदि भूतल और घट का जो संयोग है वही पर्वत और अग्नि का संयोग हो, तो जब घट और भूतल का सयोग उत्पन्न हो तभी पर्वत और अग्नि का संयोग भी उत्पन्न हो जाय और जब घट भूतल का संयोग नष्ट हो तभी पर्वत और अग्नि का संयोग भा नष्ट हो हो जाय। संयोग के समान घट आदि धर्मों का सत्त्व आदि धर्मों के साथ एक सम्बन्ध नहीं है । घट अनुयोगी है सत्त्व आदि धर्म प्रतियोगी हैं, इसलिये प्रत्येक प्रतियोगी के साथ सम्बन्ध भी भिन्न है।