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मूलम:-पर्यायाथिकनयगुणभावेन द्रव्याथिंकनयप्राधान्यादुपपद्यते। ___अर्थः-पर्यायार्थिक नय के गौण होनेसे और द्रव्यार्थिक नय के प्रधान होनेसे यह अभेद होता है।
विवेचनाः-द्रव्य पर्यायों में अनुगत रहता है । पृथ्वी द्रव्य है-वह ईंट-पत्थर-घट आदिमें अनुगत होनेसे अभिन्न है। ईट, पत्थर आदिका आकार आदि भिन्न रहता है । पृथिवी रूप से ये सब अभिन्न हैं. इसी प्रकार द्रव्यों में जो अनेक धर्म रहते हैं वे द्रव्य की अपेक्षासे अभिन्न हैं। द्रव्य का स्वरूप जब मुख्य रहता है, तब काल आदिके कारण समस्त धर्मों का अभेद प्रतीत होता है। इस दशा में पर्याय गौण होते हैं इसलिये धर्मो का भेद मुख्यरूप से नहीं प्रतीत होता।
मूलम-द्रव्यार्थिक-गुणभावेन पर्यायार्थिकप्राधान्ये तु न गुणानामभेदवृत्तिः सम्भवति । ___अर्थः-द्रव्यार्थिकनय के गौण होने पर और पर्यायार्थिकनयके प्रधान होने पर गुणों की अभेदवृत्ति नहीं हो सकती।
विवेचना:-काल आदिके द्वारा एक धर्म के साथ अन्य अशेष धर्मों का भेद प्रतीत होता है, फिर भी अभेद का उपचार करके एक शब्द एक काल में अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन करता है-अतः प्रत्येक भङ्ग सकलादेश हो जाता है । काल आदि इस दशा में अभेद का प्रतिपादन जन कारणों से नहीं करते उनका निरूपण करने के लिए कहते हैं