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अर्थः-(७) अस्तित्व का जीव आदिके साथ एक वस्तुरूप से जो संसर्ग है वही अन्य धर्मों का भी है यह संसर्ग से अभेदवृत्ति है।
मूलमः-गुणीभूतभेदादभेदप्रधानात् सम्बन्धाद्विपर्ययेण संसर्गस्य भेदः।
अर्थः-जिसमें भेद गौण है और अभेद प्रधान है-इस प्रकार के सम्बन्ध से विपरीत स्वरूप वाला होने के कारण संसर्ग का भेद है।
विवेचनाः - पहले अविष्वग्भाव नामक सम्बन्ध का वर्णन हुआ है वहो संसर्ग है, इन दोनों में भेद का कोई लक्षण नहीं प्रतीत होता। इस शंका के उत्तर में कहा है-सम्बन्ध और संसर्ग में अभेद है। परन्तु भेद भी है, सम्बन्ध में भेद गौण होता है और अभेद प्रधान होता है इसका उलटा रूप ससर्ग में है, ससर्ग में अभेद गौण और भेद प्रधान होता है। ... मूलमः स एव चास्तीति शब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचकः स एवाशेषानन्तधर्मा. त्मकस्यापोति शब्देनाभेदवृत्तिः।
अर्थः-(८) जो अस्ति शब्द अस्तित्व धर्मात्मक अर्थात् अस्तित्व स्वरूप वस्तु का वाचक है वही अन्य अनन्त धर्मों के स्वरूप में प्रतीत होने वाली वस्तु का वाचक है, यह शब्द से अभेद वृत्ति है ।