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३९६ अभेद वृत्तिकी प्रधानता है । तात्पर्य उपपन्न नहीं होता-इस कारण अन्य अनन्त धर्मों में सत् आदि पद की लक्षणा उपचार है। अभेद की प्रधानता में शक्य रूप में सत् आदि पद अनन्त धर्मों को प्रतिपादित करते हैं । उपचार की दशा में उन्हीं अनन्त धर्मों में सत् आदि पद लक्षणा के द्वारा ज्ञान उत्पन्न करते हैं।
जब वस्तु का धर्म नय के द्वारा प्रकाशित होता है, तब भेद के प्रधान होनेसे अथवा भेद का उपचार होनेसे कमसे निरूपण होता है। क्रम से धर्म का प्रतिपादक वचन विकलादेश कहा जाता है। ___यहाँ पर उपाध्यायजीने आचार्यदेवसूरि के अनुसार प्रत्येक भङ्गका सकलादेश और विकलादेश के रूप में निरूपण किया है। अन्य आचार्य पहले तोन मङ्गों को सकलादेश-रूप
और पिछले चार महगों को विकलादेश मानते हैं। १ तत्त्वार्थ सूत्र के भाष्य में व्याख्याकार सिद्ध सेन गणि-स्वादस्ति, म्याद् नास्ति और स्याद् अवक्तव्यः इन तीन भगों को सकलादेश . कहते हैं और अन्य भङगों को विकलादेश कहते हैं।
___ मूलम:-ननु कः क्रमः किं वा योगपचम् ! उच्यते-यदास्तित्वादिधर्माणां कालादिभिर्भेद. विवक्षा तदैकशब्दस्यानेकार्थप्रत्यायने शक्त्य. भावात क्रमः । यदा तु तंषामेव धर्माणां कालादिभिरभेदेन वृत्तमात्मरूपमुच्यते तदैकेनापि
टिप्पणः-१ तत्त्वार्थाधिगम सूत्र स्वीपज्ञ भाष्य टीका युक्त अध्यायपांचवां सूत्र-३१, पृष्ठ-४१५ १६,