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विवेचना:-अपेक्षा से अर्थ के सत्त्व और असत्त्व का निरू. पण करनेवाले प्रथम और द्वितीय भङ्ग मूलभूत हैं । भाव और अभावरूप दो धर्मों की प्रतीति प्रधानरूप से कोई शब्द नहीं करा सकता इसलिये अवक्तव्य भङ्ग प्रकट होता है । एक काल में दो धर्मों की प्रधानरूप से कहनेकी इच्छा अवक्तव्य भङ्गके प्रकट होनेमें कारण है । आद्य दो भङ्गों के साथ अवक्तव्य भङ्ग का विविध रीति से संयोग करने पर अन्य भङ्ग बन जाते हैं। इनमें अवक्तव्य भङ्गको कुछ लोग तृतीय स्थान देते हैं तथा विधि और निषेध का क्रम से प्रतिपादन करनेवाले भङ्ग को चतुर्थ स्थान देते हैं। जब एक धर्मों में चतुर्थ भङ्ग के द्वारा प्रतिपादित होनेवाले अवक्तव्यत्व को प्रथम भङ्ग के द्वारा प्रतिपाद्य सत्त्व के साथ कहना चाहते हैं तब पञ्चम भङ्ग प्रवृत्त होता है। स्व द्रव्य आदिकी अपेक्षा से सत्त्व का अलग निरूपण करना चाहते हैं इसके साथ ही स्व. द्रव्य आदिकी अपेक्षा से सत्त्व को और पर-द्रव्य आदिको अपेक्षा से असत्त्व को प्रधानरूप में एक साथ कहना चाहते हैं-तब पञ्चम भङ्ग होता है। कञ्चित् सत्त्व और कथञ्चित् अवक्तव्यत्व इन दो धर्मों को प्रकाररूप से और घट आदि एक धर्मी को विशेष्यरूप से प्रकाशित करना पञ्चम भङ्गका असाधारण स्वरूप है। "स्यात् अस्ति एव, स्यात् अवक्तव्य मेव" यह पश्चम भङ्ग का आकार है।
द्वितीय भङ्ग में असत्त्व का प्रतिपादन और चतुर्थ में अवक्तव्य का है। दोनों को मिलाने से छठा भङ्ग प्रकट होता है। छठे भङ्ग से जब ज्ञान उत्पन्न होता है तब किसी अपेक्षा से असत्त्व और किसी अपेक्षा से अवक्तव्यत्व प्रकार रूप में प्रतीत होते हैं । घट आदि धर्मी विशेष्यरूप से प्रतीत होता है इस प्रकार के ज्ञान को उत्पन्न करना छठे भङ्ग का लक्षण है