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की अपेक्षा से किसी भी अर्थ का सत्व और असत्त्व अनुभव सिद्ध है । शब्द जब द्रव्य आदिकी अपेक्षा के बिना अर्थ के सत्त्व और असत्त्व का प्रकाशन करता है तब वह नय वाक्य नहीं होता । तब उसमें लौकिक प्रामाण्य रहता है। सप्तभङ्गीरूप प्रामाण्य के लिए अथवा प्रथम द्वितीय आदि भङ्गरूप नय के लिए शब्द से उत्पन्न ज्ञान का अपेक्षात्मक होना आवश्यक है ।
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स्व- द्रव्य क्षेत्र आदि के साथ अर्थ का साक्षात् संबन्ध है । इसलिए उनके कारण एक अर्थ का सत्त्व है, पर जो द्रव्य क्षेत्र आदि भिन्न वस्तु के साथ संबंध रखते हैं, वे भी सत् वस्तु के संबंधी हैं । अपेक्षा के कारण होनेवाला सम्बन्ध दो प्रकार से होता है, सत्त्व के द्वारा और असत्त्व के द्वारा । जो द्रव्य आदि स्व है उनके साथ सत्त्व के द्वारा संबंध है और जो द्रव्य आदि पर हैं उनके साथ असत्त्व के द्वारा सम्बन्ध है । घट अवस्था में पिंड आकार का पर्याय नहीं होता, इसलिये उसके साथ असत्त्व के द्वारा सम्बन्ध है जो द्रव्य क्षेत्र आदि घट के स्वरूप में प्रतीत नहीं होते, वे ही पर कहे जाते हैं और इसलिए उनके साथ असत्त्व के द्वारा सम्बन्ध होता है । सव के द्वारा जिसके साथ सम्बन्ध है वही संबंधी नहीं होता । जिनके साथ असत्त्वरूप से संबंध है वे भी सम्बन्धी होते हैं । यदि वे पर होने के कारण सर्वथा सम्बन्ध से रहित हों तो सामान्य रूप से उनकी सत्ता कहीं भी नहीं होनी चाहिये । परंतु पर द्रव्य आदि का स्व-स्वरूप से अभाव प्रत्यक्ष और युक्ति के विरुद्ध है । जब लोग कहते हैं दरिद्र के पास धन नहीं है तब असत्त्वरूप से धन का संबंध दरिद्र के साथ होता है। सत्त्वरूप से सम्बन्ध न होनेके कारण असत्त्वरूप से जो सम्बन्ध है उसका निषेध नहीं हो सकता ।