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भेदाभेद न होने पर भी अवश्यंभावी संयोग सम्बन्ध है। इन नियत संबधियों के साथ ही अर्थ प्रतीत होता है इसलिए इन की अपेक्षा से सत् है । जो द्रव्य क्षेत्र आदि पर हैं उनके साथ प्रतीति नहीं होती इसलिए उनकी अपेक्षा से असत् है।
मूलम-एवं स्यानास्त्येव सर्वमिति प्राधान्येन निषेधकल्पनया द्वितीयः ।
अर्थः-इसी प्रकार किसी अपेक्षा से सब पदार्थ नहीं हैं इस रीति से निषेध की प्रधानरूप से विवक्षा के द्वारा दूसरा भङ्ग होता है।
. विवेचना:-प्रथम भङ्ग में सत्त्वरूप धर्म की प्रधानरूप से विवक्षा है, इस कारण असत्त्व का ज्ञान गौण रूप से होता है। सर्वथा असत्त्व की अप्रतीति नहीं होती। प्रत्येक भङ्ग एक एक नियत धर्म को प्रधानरूप से प्रकट करता है । अमावा. त्मक विरोधी धर्मों की प्रतीति अप्रधानरूप से होतो है । सप्तमजी श्रत प्रमाण का अवान्तर भेद है । एक एक भड नयरूप वाक्य है। विरोधी धर्म का सर्वथा निषेध न करके किसी धर्म का निरूपण करना नय के स्वरूप के लिए आवश्यक है । यदि पहला भङ्ग असत्त्व का सर्वथा निषेध करे तो वह नय वाक्य ही नहीं रहेगा । इसी प्रकार यदि दूसरा भङ्ग सत्त्व का सर्वथा निषेध करे तो वह भी नय न होकर दुर्नय हो जायगा । इस दशा में नयों का समूहरूप सप्तमङ्गी भी अप्रमाण हो जायगी। सत्त्व और असत्त्व मापेक्ष भाव हैं। अपेक्षा युक्त अर्थों में अपेक्षा से ही प्रतिपादन होना चाहिए । सत्व और असत्व, रूप-रस स्पर्श आदिके समान सर्वथा परस्पर निरपेक्ष नहीं हैं। स्वद्रव्य और पर द्रव्य आदि