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में विधि भी प्रकार है और निषेध भी प्रकार है। प्रथम और द्वितीय भङ्ग से उत्पन्न होनेवाले दो ज्ञानों की अपेक्षा एक विलक्षण ज्ञान को उत्पन्न करने के कारण तृतीय भङ्ग भिन्न है।
ध्यान रहे-तृतीय भङ्ग से उत्पन्न ज्ञान में जो विधि और निषेध प्रतीत होते हैं उनमें परस्पर विशेषण विशेष्य भाव नहीं है। यदि इन दोनों में विशेषण विशेष्य भाव हो तो विशेषण गौण हो जायगा और विशेष्य मुख्य हो जायगा। क्रम से दोनों की प्रधानता इष्ट है वह नहीं रहेगी । इसलिए तृतीय भङ्ग एक ही अर्थ को विधि और निषेध से विलक्षण रूप में प्रकाशित करता है। इस बोध में विधि और निषेध दोनों समान रूप से प्रकार हैं और घट आदि अर्थ विशेष्य हैं।
मूलम्-स्यादवक्तव्यमेवेति युगपत्प्राधान्येन विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः, एकेन पदेन युगपदुभयोर्वक्तुमशक्यत्वात् ।
अर्थः-किसी अपेक्षा से सब पदार्थ अवक्तव्य ही हैं । इस प्रकार एक काल में प्रधानरूप से विधि और निषेध की विवक्षा के कारण चतुर्थ भङ्ग होता है । एक पद एक काल में विधि और निषेध का कथन नहीं कर सकता, इसलिये अर्थ अपेक्षा से अवक्तव्य है।
विवेचना:- असत्त्व को गौण करके मुख्य रूप से सत्त्व का प्रतिपादन करना हो तो प्रथम भङ्ग होता है। इसके विपरीतरूप में सत्त्व को गौणरूप से और असत्त्व को मुख्य रूप से कहना हो, तो द्वितीय भङ्ग होता है । सत्त्व और असत्व दोनों धर्मों का मुख्यरूप से निरूपण करना हो तो कोई भी