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अपेक्षा से असत्त्व का प्रधान रूप में निरूपण होता है। सत्त्व और असत्त्व दोनों का क्रम के साथ प्रधान रूप से निरूपण तृतीय भङ्ग में होता है। प्रथम भङ्ग अथवा द्वितीय भङ्ग दोनों का प्रधानरूप से निरूपण नहीं करता, यही तृतीय भङ्ग का प्रथम और द्वितीय भङ्ग से भेद है ।
उपाध्याय श्री यशोविजयजी अन्य रीति से भी प्रथम और द्वितीय भङ्गः से तृतीय भङ्ग के भेद को प्रकट करते हैं । प्रथम भङ्ग से विधि का मुख्य रूप से भान होता है द्वितीय भङ्ग से निषेध का बोध मुख्य रूप से होता है। प्रथम भङ्ग के अनन्तर द्वितीय भङ्ग है इसलिये विधि और निषेध का क्रम से ज्ञान दोनों भङ्ग कर देते हैं। तृतीय भङ्ग भी क्रम के साथ विधि और निषेध के ज्ञान को उत्पन्न करता है । इसलिये तृतीय भङ्ग का प्रथम और द्वितीय भङ्ग से कोई भेद नहीं है इस आशंका का निराकरण करने के लिए वे कहते हैं तृतीय भङ्ग से जो बोध होता है वह 'एकत्र द्वयम्' इस रीति से होता है । एक विशेष्य में दो अर्थों का प्रकाररूप से जो ज्ञान होता है वह 'ब्रेक में दो' नाम से कहा जाता है । चैत्र दण्डी है और कुंडली है यह वाक्य इसका उदाहरण है । चैत्र दण्डवाला है और कुण्डलवाला है यह ज्ञान इस वाक्य से उत्पन्न होता है । इस ज्ञान में चैत्र विशेष्य है दण्ड श्रौर कुण्डल प्रकार हैं । इसी प्रकार तृतीय भङ्ग में एक ही ज्ञान है जिसमें विधि भी प्रकार है और निषेध भी प्रकार है। एक वस्तु विशेष्य है। प्रथम भङ्ग के अनन्तर जब द्वितीय भङ्ग से बोध होता है तब क्रम से विधि और निषेध का ज्ञान तो होता है परन्तु वह ज्ञान एक नहीं होता । बे दो ज्ञान होते हैं जो क्रम से होते हैं। तृतीय भङ्ग के द्वारा होनेवाला ज्ञान एक ही है उस एक ज्ञान
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