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विवेचना:-स्यात् अनेकान्त का प्रकाशक अव्यय है। यह 'तिङन्त' पद नहीं है किन्तु तिङन्त के समान है और अपेक्षा का बोध कराता है । अपेक्षा के द्वारा जब सत्त्व धर्म का प्रतिपादन होता है तब प्रथम भङ्ग होता है। अपेक्षा अक प्रकार का मानस ज्ञान है। भावों के कुछ धर्म परस्पर अपेक्षा नहीं रखते और कुछ धर्म परस्पर अपेक्षा रखते हैं। रूप रस आदि परस्पर सापेक्ष नहीं हैं। सत्व और असत्त्व आदि अपेक्षा से प्रतीत होते हैं, इसलिए अपेक्षा के द्वारा इनका प्रतिपादन भङ्गरूप हो जाता है।
मूलम्:-अस्ति हि घटादिकं द्रव्यतः पार्थिवादित्वेन, न जलादित्वेन । क्षेत्रतः पाटलिपुत्र. कादित्वेन, न कान्यकुब्जादित्वेन । कालतः शैशिरादित्वेन, न वासन्तिकादित्वेन । भावतः श्यामादित्वेन, नरक्तादित्वेनेति।। __ अर्थः-घट आदि द्रव्य की अपेक्षा से पार्थिव आदि स्वरूप के द्वारा है, जल आदि रूप से नहीं है। क्षेत्र की अपेक्षा से पाटलिपुत्र में है, कान्यकुब्ज में नहीं है । काल की अपेक्षा से शिशिर ऋतु में है, वसन्तऋतु में नहीं है । भाव की अपेक्षा से श्याम आदि रूप में है, रक्त आदि रूप में नहीं है।
विवेचना:-प्रत्येक द्रव्य का कोई उपादान कारण होता है और वह किसी देश में और किसी काल में होता है । जब द्रव्य प्रतीत होता है तब अपने गुणों और पर्यायों के