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रिक्त किसी दूसरे धर्म का भी प्रतिपादन नहीं करती। केवलज्ञान और सप्तभङ्गी से उत्पन्न ज्ञानों की पूर्णता में यह बडा भारी भेद है । लौकिक वाक्य की अपेक्षा सप्तभङ्गी वाक्य अधिक धर्मों का प्रकाशक है इसलिए पूर्ण ज्ञान का जनक कहा गया है।
सप्तभङ्गी आगम प्रमाण है और आगम श्रुतरूप है । श्रुत तीन काल के अर्थों को प्रकाशित करता है और केवलज्ञान भी। श्रुत और केवल में इतना साम्य है, परन्तु केवलज्ञान समस्त द्रव्यों के अनन्त पर्यायों का जिस स्पष्ट भाव से प्रकाशन करता है उस स्पष्ट भाव से श्रुत नहीं प्रकाशित करता। इसके अतिरिक्त श्रुत केवल सप्तभङ्गीरूप नहीं है । द्वादश अंग और उपांग, श्रुत के अन्दर आ जाते हैं । वे सब अङ्ग और उपांग, तीन काल के अर्थों को प्रकट करते हैं । किसी एक अर्थ के किसी एक सत्त्व अथवा असत्त्व धम को लेकर सात प्रकार से प्रतिपादन करनेवाली सप्तभङ्गी मुख्य भाव से किसी एक धर्म का प्रतिपादन कर सकती है। समस्त पर्यायों के साथ समस्त द्रव्य उसके विषय नहीं हैं। सप्त. भङ्गो सात प्रकार से धर्म का प्रतिपादन करने के कारण प्रमाणवाक्य अवश्य है। परन्तु वह विशाल श्रुत प्रमाण का अत्यन्त सूक्ष्म अंश है, इस पारिभाषिक पूर्णता के अभिप्राय से सप्तमङ्गी वाक्य को प्रमाण वाक्य और पूर्ण ज्ञान का जनक कहा गया है । सप्तभङ्गो के सात भङ्ग हैं। प्रत्येक भङ्ग सात प्रकार से अर्थ के किसी एक सत्त्व, नित्यत्व, आदि धर्म का निरूपण नहीं करता । एक एक भङ्ग प्रमाण वाक्य नहीं है। उपाध्याय श्री यशोविजयजी नयोपदेश में सप्तमङ्गी के