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अन्तर्गत अथवा उसके बहिर्गत किसी एक भङ्ग को नय वाक्य कहते हैं ।
(नयोपदेश -नयामृततरङ्गिणी और आ. विजय लावण्यसूरि रचित तरङ्गिणी से युक्त, पृ. ५२ )
जो व्युत्पन्न पुरुष है उसके सामने यदि एक मङ्ग को भी कहा जाय तो वह स्याद्वाद से परिचित होने के कारण अन्य भङ्गों का स्वयं आक्षेप कर लेता है। इस प्रकार उसको सात भङ्गों के समुदाय से पूर्ण अर्थ का ज्ञान हो जाता है । सात मङ्ग सात वाक्य हैं, परस्पर मिलकर वे एक महा वाक्य बन जाते हैं ।
अर्थ केवल भावरूप नहीं अभावरूप भी है. इसलिए सप्तभङ्गी विधि और निषेध दोनों के द्वारा अर्थ का निरूपण करती है ।
मूलम्:- यत्र तु घटोऽस्तीत्यादिलोकवाक्ये सप्तभङ्गी संस्पर्शशून्यता तत्रार्थप्रापकत्वमात्रेण लोकापेक्षया प्रामाण्येऽपि तत्त्वतो न प्रामाण्यमिति द्रष्टव्यम् |
अर्थ:-घट है इत्यादि जिस लोक वाक्य में सप्तभङ्गी का स्पर्श नहीं है वहां पर लोगों की अपेक्षा से प्रामाण्य है | परंतु तत्व की अपेक्षा से उसमें प्रामाण्य नहीं है ।
विवेचनाः- लोग जब कहते हैं 'घट है' तो सुननेवाले को केवल घट की सत्ता का ज्ञान होता है । सत्त्व के विषय में सात प्रकार का ज्ञान नहीं होता । केवल सत्ता का ज्ञान होने पर भी यह ज्ञान शुक्ति में रजत ज्ञान के समान अथवा मरुस्थल में पानी के ज्ञान के समान भ्रान्त नहीं है। शुक्ति को