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इत्यादि वाक्य में भी सत्त्व धर्म को प्रकाशित करने के कारण लौकिक प्रामाण्य है।
[सप्तभङ्गों के स्वरूप का निरूपण]
मूलम:-केय सप्तमीति चेदुच्यते-एकत्र पम्तुन्येकैकधर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया स्याकाराङ्कितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तभङ्गी।
अर्थः-सप्तभङ्गी क्या है ? इस प्रकार के प्रश्न का उत्तर यह है-किसी भी एक वस्तु में एक एक धर्म के विषय में प्रश्न करने के कारण विना विरोध के अलग अलग और मिलित विधि और निषेध की कल्पना के द्वारा स्यात् शब्द से युक्त सात प्रकार का शब्द प्रयोग सप्तभङ्गी कहलाता है।
विवेचना:-जीव अजीव आदि जितने अथ हैं उन सब में सत्त्व, असत्त्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व, आदि धर्मों में प्रश्न करने के कारण विधि और निषेध के द्वारा सात प्रकार का वचन सप्तभङ्गी है । प्रत्येक धर्म का अपने अभावात्मक धर्म के साथ स्वाभाविक विरोध है। अपेक्षा के भेद से परस्पर विरोधी धर्मों के विरोध को दूर करके धर्मी अथे अनेक धर्मों से युक्त प्रकाशित किया जाता है । कभी विधि को कल्पना की जाती है और कभी निषेध की। एक अपेक्षा से विधि होती है और अन्य अपेक्षा से निषेध । निरपेक्ष भाव से जो विरोधी हैं उनका विरोध