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अपेक्षा के कारण दूर हो जाता है। एक धर्मों में एक काल में विरोधी धर्मों का प्रतिपादन सप्तभङ्गी के लिए अत्यन्त आवश्यक है। जिन धर्मों का परस्पर विरोध नहीं है उन धर्मों का धर्मों में एक साथ प्रतिपादन सप्तभङगी नहीं है एक फल में रूप रस गन्ध और स्पर्श आदि एक काल में प्रत्यक्ष से सिद्ध हैं । रूप आदिका परस्पर विरोध नहीं हैं, वे परस्पर मिलकर रहते हैं, इसलिए उनका एक धर्मों में निरूपण सप्तभङ्गी नहीं है । धर्म का अपने अभाव के साथ विरोध होता है । धर्म भावात्मक है और अभाव उसका निषेधात्मक है। भाव और अभाव स्वाभाविक रूप से परस्पर विरोधी हैं। जहाँ भाव है वहाँ अभाव नहीं और जहाँ प्रभाव है वहां भाव नहीं। भाव और अभाव रूप घिरे धी धर्मों का अपेक्षा के द्वारा एक धर्मी में एक काल में निरूपण हो, तो सप्तभङ्गी हो जाती है। कोई भी धर्म हो उसका अपने अमाव के साथ विरोध है इस विरोध को सप्तभङ्गी दूर करती है। किसी भी धर्म के विषय में सप्तभङ्गी होती है तो भाव के साथ अभाव के विरोध को दूर करती ही है। जब सत्त्व और असत्त्व का एक धर्मों में प्रतिपादन होता है तभी भाव और अभाव का विरोध दूर नहीं होता किन्तु जब भेद और अभेद का नित्यत्व और अनित्यत्व आदिका एक धर्मी में प्रतिपादन होता है तभी भाव और अभाव का विरोध दूर हो जाता है। असत्त्व जिस प्रकार सत्त्व का अभाव है इस प्रकार अभेद भेद का अभाव है, नित्यत्व का अभाव अनित्यत्व है । भाव और अभावरूप से विधि और निषेध का प्रतिपादन सप्तभङ्गी का प्राण होता है।
एक धर्मों में एक धर्म का विधान हो और उससे भिन्न किसी अन्य धर्म का निषेध हो, तो सप्तभङ्गी नहीं होती।