________________
३५४
धर्म के अज्ञान को वादी और प्रतिवादी नित्यत्व और अनि. त्यत्व दो परस्पर विरोधी साध्यों की सिद्धि के लिये हेतु. रूप में कहते हैं इसलिए विशेष धर्म का अज्ञानरूप हेतु एक कहा जा सकता है । एक के लिये नित्य धर्म का अज्ञान हेतु है और दूसरे के लिए अनित्य धर्म का अज्ञान हेतु है । दो विरोधी साध्यों के साथ सम्बन्ध होनेके कारण विशेष धर्म का अज्ञान दो हेतुओं के रूप में हो जाता है। इसलिये उपाध्याय जी प्रकरणसम को वो हेतुओं के रूप में कहते हैं।
एक हेतु के रूप में हो अथवा दो हेतुओं के रूप में हों, प्रकरणसम असिद्ध आदि तीन हेत्वाभासों से अतिरिक्त नहीं है। जो वादी नित्य धर्म के अज्ञान को हेतुरूप में कहता है यदि वह जान के केवल अभाव को साध्य का साधक समझता है, तो उसका मत युक्त नहीं है। ज्ञान का अभाव सर्वथा असत् होने पर तुच्छरूप होगा और तुच्छ किसी भावात्मक साध्य का साधक नहीं हो सकता। यदि वादी नित्य धर्म के अज्ञान का अर्थ अनित्य धर्म के ज्ञान को समझता है, तो वह भी युक्त हेतु नहीं है । यदि अनित्य धर्म का ज्ञान सिद्ध हो, तो शब्द में अनित्यत्व साध्य की सिद्धि हो जायगी । यदि अनित्य धर्म का ज्ञान वादी के लिए निश्चित नहीं है तो हेतु वादी के लिए संदिग्धासिद्ध हो जायगा । प्रतिवादी की अपेक्षा से तो अनित्य धर्म का ज्ञानरूप हेतु स्वरूपासिद्ध है । प्रतिवादी शब्द में नित्य धर्म के ज्ञान को सिद्धरूप में स्वीकार करता है । इसी प्रकार अनित्य धर्म का अज्ञान भी हेतुरूप में युक्त नहीं है । अभिप्राय यह है, यदि विरोधी हेतु का ज्ञान सिद्ध है तो वह अपने साध्य की सिद्धि अवश्य करेगा। यदि विरोधी हेतु निश्चित