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मूलम्:- प्रकरणसमोऽपि नातिरिच्यते, तुल्यबलसाध्यतद्विपर्ययसाधकहेतुइयरूपे सत्यस्मिन् प्रकृतसाध्यसाधनयोरन्यथानुपपश्यनिश्चयेऽ-सिद्ध एवान्तर्भावादिति संक्षेपः ।
अर्थ :- प्रकरण सम भी अधिक हेत्वाभास नहीं है । साध्य और साध्य के अभाव के साधक तुल्य बलवाले दो हेतुओं को प्रकरण सम कहा जाता है । इसमें प्रकृत साध्य और साधनों की अन्यथानुपपत्ति का निश्चय न होने पर असिद्ध में ही अन्तर्भाव हो जाता है। यह संक्षेप से कथन है ।
विवेचनाः- नैयायिक कहते हैं- जिस हेतु के कारण पक्ष के समान प्रतिपक्ष की भी चिंता होने लगती है वह हेतु अब निश्चय के लिए कहा जाता है तब वह प्रकरण सम कहा जाता है । विशेष धर्म का ज्ञान न होने पर सन्देह होता है । जहां सन्देह होता है वहां दो परस्पर विरोधी धर्मों का ज्ञान होता है। किसी भी एक धर्म के साधक विशेष धर्म का ज्ञान नहीं होता । दूरसे किसी ऊंचे अर्थ को देखकर यदि विशेष धर्मों का निश्चय न हो, तो 'स्थाणु है वा पुरुष' इस प्रकार का सन्देह उत्पन्न होता है । सन्देह के उत्पन्न होने से पहले वृक्ष के शाखा पत्र, फूल, फल आदि विशेष' धर्मों का ज्ञान नहीं होता, इसी प्रकार हाथ, पैर, शिर आवि पुरुष के विशेष धर्मों का ज्ञान नहीं होता। यदि इन दोनों परस्पर विरोधी धर्मो में से किसी एक विशेष धर्म का ज्ञान हो जाय तो सन्देह