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भिन्न किसी अन्य साध्य की सिद्धि में भी शब्दस्व हेतु असमर्थ है इसलिए अकिंचित्कर है। अकिंचित्कर को हेत्वाभास मानने वाले वादियों का यह अभिप्राय है।
उपाध्याय श्री यशोविजयजी कहते हैं, सिद्ध साधन हेत्वाभास नहीं है, हेतु में दोष हो, तो हेत्वाभास होता है। प्रकृत अनुमान में शब्दत्व हेतु है उसमें कोई दोष नहीं है। प्रकृत अनुमान में शब्द पक्ष है और श्रावणत्व धर्म साध्य है। जो धर्म सिद्ध न हो उसको सिद्ध करने के लिए हेतु का प्रयोग किया जाता है । यहाँ पर श्रावणत्व शब्द में प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध है उसको सिद्ध करने के लिये हेतु की आवश्यकता नहीं है। अनावश्यक होनेके कारण कोई हेतु अपने स्वरूप का त्याग नहीं करता । हेतु क्या, कोई भी अर्थ अनुपयोगी होनेसे अपने स्वरूप को किसी काल और किसी देश में नहीं छोडता । तृण किसी व्यक्ति के लिए उपयोगी न हो, तो वह तण के स्वरूप में ही रहता है. उसका स्वरूप दूर नहीं होता । यहाँ पर पक्ष का दोष है। जब धर्मो प्रसिद्ध होता है और उसको किसी असिद्ध धर्म के साथ सिद्ध करने की इच्छा होती है तो धर्मी पक्ष कहा जाता है। पर्वत प्रसिद्ध धर्मी है जब उसमें असिद्ध वह्नि के संबंध को सिद्ध करने की इच्छा होती है तो पर्वत पक्ष हो जाता है। धर्मों के पक्ष होने के लिये साध्य धर्म का असिद्ध होना आवश्यक है। यहां पर श्रावणत्व धर्म प्रत्यक्ष से सिद्ध है । असिद्ध धर्म के साथ सम्बन्ध न होनेके कारण शब्द धर्मों पक्ष नहीं है, किन्तु पक्षाभास है । प्रकृत अनुमान में शब्दत्व हेतु है, उसमें कोई दोष नहीं है अतः वह हेत्वाभास नहीं है । निश्चित अन्यथा. नुपपत्ति हेतु का लक्षण है जहां पर अन्यथानुपपत्ति विपरीत होती है वहां हेतु विरुद्ध होता है । जहां अन्यथानुपपत्ति का