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के प्रयोग हैं जिनमें धर्म को प्रसिद्धि विकल्प से ही हो सकती है और खंड रूप से प्रसिद्धि नहीं हो सकती। इस प्रकार का एक अनुमान जैनो का है । वह इस प्रकार है - 'एकान्त - नित्यमर्थक्रिया समर्थ न भवति' यहां एकान्त नित्य अर्थ में अर्थक्रिया के सामर्थ्य का निषेध है । जैनमत के अनुसार कोई अर्थ एकान्त रुप से नित्य नहीं है । किन्तु एक अपेक्षा से नित्य है और अन्य अपेक्षा से अनित्य है । खर का शृंग आदि जिस प्रकार असत् है, इस प्रकार एकान्तमित्य अर्थ असत् है । इस असत् अर्थ की यदि विकल्प से सिधि मानी जाय तो निषेध हो सकता है । परन्तु विकल्प से यदि सिद्धि न हो तो खंडरूप से प्रसिद्धि करनी चाहिये। यहां पर खंडों के द्वारा प्रसिद्धि असंभव नहीं है । उसका उपपादन जैन तर्क के अनुसार हो सकता है । नैयायिक और सांख्य आदि जिस अर्थ को एकान्तरूप में नित्य स्वीकार करते हैं उसकी उत्पत्ति और विनाश को किसी रूप मैं नहीं स्वीकार करते । सांख्य के अनुसार आत्मा एकान्तरूप से नित्य है। किसी प्रकार से उसको उत्पत्ति और विनाश नहीं होते । न्यायमत के अनुसार आत्मा ही नहीं, परमाणुश-आदि अर्थ मी एकान्त नित्य हैं। उनके भी उत्पत्ति और विनाश नहीं होते । जैन मत के अनुसार आत्मा और परमाणु आदि भी द्रव्यरूप से नित्य हैं और पर्यायरूप से अनित्य हैं । कोई भी अर्थ एकान्तरूप से नित्य अथवा अनित्य नहीं है । सांख्य आदिके अनुसार उत्पत्ति और विनाश से सर्वथा रहित अर्थ एकान्त नित्य है । यहां दो अंग हैं - एक अंश हैं विशेष्यरूप आत्मा - परमाणु भादि अर्थ और दूसरा अंश है उत्पत्ति और विनाश का अभाव
आकाश-3