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सत्य शब्द का लिया गया है । परन्तु जिस साध्य की सिद्धि के लिये आप यत्न करते हो वह साध्य सिद्ध हो गया है इस प्रकार का अभिप्राय यहां सत्य शब्द का नहीं है। जिस हेतु को आप कहते हैं वह हेतु सत्य है केवल इतना ही अभिप्राय है । माध्य की सिद्धि को सिद्धान्ती नहीं स्वीकार करता। जिस हेतु को आप कहते हैं वह हेतु विद्यमान होने पर भी साध्य की सिद्धि में समर्थ नहीं है-यह सत्य शब्द का यहां अभिप्राय है । जो वस्तु सर्वथा एक है उसका संबंध अनेक व्यक्तियों के साथ एक काल में नहीं हो सकता और सामान्य इसी प्रकार का एक अर्थ है । इस आपत्ति को नैयायिकों के पक्ष में हम देते हैं-यह सत्य है किन्तु उसके कारण वादी जिस अर्थ को स्वयं सिद्ध नहीं मानता किन्तु प्रतिवानी के आगम के अनुसार जो सिद्ध है उतका प्रयोग हेतुरूप में नहीं सिद्ध हो सकता-इतना यहाँ पर सत्य शब्द का अप्रिप्राय है। हेतु का स्वीकार और साध्य की सिद्धि का अस्वीकार इन दोनों को जब प्रकट करना हो तब आक्षेप. को दूर करने के लिये समाधान के काल में सत्य शब्द का प्रयोग होता है।
मूलम्:-बुडिरचेतनेत्यादौ च प्रसङ्गविपर्ययहेनोाप्तिसिद्धिनिबन्धनस्यविरुद्धधर्माध्यासस्य विपक्षबाधकप्रमाणस्यानुपस्थापनात् प्रसङ्गस्याप्यन्याय्यत्वमिति वदन्ति ।
अर्थ:-बुद्धि अवेतन है, इत्यादि स्थल में प्रसंग का जो विपर्यय रूप हेतु है, उसकी व्याप्ति की सिद्धि में कारगरूप जो विरुद्ध धर्मों का संबंध है वह विपक्ष