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वृत्तित्व की निवृत्ति होती है । अतः मूल हेतु का परिकर होने से प्रसंग का उल्लेख भी युक्तियुक्त है।
विवेचना:-अनेक व्यक्तियों में वत्ति का निषेध करने के लिये सर्वथा एकत्व को जैन हेतुरूप में नहीं कहता। वह प्रसंग करता है। यहां पर व्यापक विरूद्धोपलब्धि प्रसग है। निषेध्य वस्तु का जो व्यापक धम है उसका विरोधी जो धर्म है उसकी उपलब्धि व्यापकविरुद्धोपलब्धि कहलाती है। यहां अनेक व्यक्तियों में एक सामान्य की वृत्ति का निषेध करना है, अतः अनेक व्यक्तियों में वृत्ति निषेध्य है उसका व्यापक धर्म अनेकत्व है । उद्यान की भूमि में अनेक वृक्ष होते हैं । एक वृक्ष जिसभूमि में है, उससे भिन्न भूमि देश में अन्य वृक्ष है । प्रथम वृक्ष जिस देश में है उस देश में दूसरा वृक्ष नहीं । तीसरा वृक्ष जिस देश में है, वह देश प्रथम और द्वितीय वक्ष के देशों से भिन्न है। एक काल में अनेक वृक्ष भिन्न भिन्न अनेक देशों में रहते हैं । इस कारण जो अनेक व्यक्तियों में रहते हैं वे अनेक हैं, इस प्रकार की व्याप्ति सिद्ध होती है । अनेक व्यक्तियों में वृत्ति व्याप्य है और अनेकत्व उसका व्यापक है । इस अनेकत्व के साथ सर्वथा ऐक्य का विरोध है। जो सर्वथा एक है वह अपने आश्रय देश का त्याग करके अन्य देश में नहीं रह सकता। अपने देश में वृत्ति का ज्ञान जब होता है तब अन्य देश में अवत्ति का ज्ञान होता है । इस रीति से स्वदेश वृत्ति और अन्यदेश में वृत्ति परस्पर विरोधी हैं । स्वदेश में वृत्ति का त्याग करके अन्यदेश में वृत्ति होती है इसलिये इन दोनों में परस्पर परिहार रूप विरोध है । आप सामान्य को सर्वथा एकरूप स्वीकार करते हैं । यह सर्वथा ऐक्य अनेकत्व का