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चतुर्थ उदाहरण में प्रशम आदि भाव निषेध्य हैं । उनके साथ अविरुद्ध और उनका कारण तत्त्वार्थ में श्रद्धा है उसकी अनुपलब्धि है, अतः श्रविरुद्धकारणानुपलब्धि है । जीव आदि तत्त्वों में जिसकी श्रद्धा होती है उसके अन्तःकरण में प्रशम आदि भाव उत्पन्न होते हैं। प्रशम वराग्य निर्वेद - अनुकम्पा और आस्तिक्य- इस जीव के परिणाम हैं । जीव आदि तत्त्वभूत अर्थो में श्रद्धा इन भावों का कारण है । जब किसी पाप कर्म से मनुष्य में जीव आदिके विषय में श्रद्धा का अभाव सिद्ध होता है, तब इस श्रद्धा के प्रशम आदि जो कार्य हैं उनका अभाव सिद्ध होता है । व्यापक के अभाव में व्याप्य का अभाव नियम से होता है । लोक में भी व्यापक अग्नि के अभाव से व्याप्य धूम के अभाव की प्रतीति होती है ।
पंचम उदाहरण में मुहूर्त के अनन्तर स्वाति नक्षत्र का उदय निषेध्य है उसके साथ अविरुद्ध और उसके पूर्वचर चित्रा नक्षत्र का उदय है उसका अदर्शन है, अतः अविरुद्ध पूर्वचरानुपलब्धि है ।
छठे उदाहरण में - पूर्व भद्रपदा नक्षत्र का उदय निषेध्य है । उसके साथ अविरुद्ध और उसका उत्तरचर उत्तरभद्रपदा नक्षत्र का उदय है उसका अदर्शन है, अतः अविरुद्ध उत्तरचरानुपलब्धि है ।
सप्तम उदाहरण में सम्यग्ज्ञान निषेध्य है । उसके साथ अविरुद्ध और उसका सहचर सम्यग् दर्शन है । उसकी उपलब्धि नहीं, अतः अविरुद्धसहचरानुपलब्धि है । जब किसी मनुष्य में सम्यग् दर्शन का अभाव सिद्ध होता है तब उसके सहचर सम्यग् ज्ञान का अभाव सिद्ध होता है ।