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प्रमाण का अभाव वादी और प्रतिवादी दोनों के लिये है। प्रतिवादी के मत के अनुसार उस हेतु की सिद्धि में प्रमाण नहीं है और वादी प्रमाण का प्रयोग नहीं करता, इसलिये वादी के मत में भी प्रमाण का अभाव है। इस रीति से वादी और प्रतिदादी के लिये वह हेतु असिद्ध है । यदि वादी असिद्धता दोष के निराकरण के लिये प्रमाण को कहता है तो प्रमाण सबके लिये प्रमाण होता है। प्रमाण का प्रामाण्य पुरुष को अपेक्षा से नहीं होता। वादी जिस प्रमाण को कहता है वह प्रतिबादी के लिये भी प्रमाण है । इस अवस्था में वादी का हेतु प्रतिबादी के लिये भी प्रमाण है। इस अवस्था में वादी का हेतु प्रतिवादी के लिये भी सिद्ध होगा। दोनों के लिये सिद्ध होने के कारण वह असिद्ध नहीं हो सकता।
मूलम्:-अथ यावन्न परं प्रति प्रमाणेन प्रसा. ध्यते, तावत्तं प्रत्यसिद्ध इति चेत् गौणं ता. सिद्धत्वम् ; न हि रत्नादिपदाथस्तत्त्वतोऽप्रतीयमानस्तावन्तमपि कालं मुख्यतया तदाभासः।
अर्थः-यदि आप कहते हैं-जब तक प्रतिवादी के लिये हेतु प्रमाण से सिद्ध नहीं होता तब तक उसके लिये वह असिद्ध है, तो असिद्धता गौण हो जायगी । रत्न आदि पदार्थ जितने काल तक तात्त्विकरूप में प्रतीन नहीं होते उतने काल तक वे मुख्यरूप से रत्नाभास नहीं हो जाते ।