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३१७ मगशीर्षोदयविरुद्धमघोदयोत्तरचरः। सम्यग्दर्शनं घमिथ्याज्ञानविरुडसम्यगज्ञानसहचरमिति ।
अर्थः-यहाँ अनेकान्त, निषेध्य एकान्त का जो स्वभाव है उसके विरुद्ध है । तत्त्व का निश्चय निषेध्य है उसका विरोधी तत्त्व का अनिश्चय है उसका व्याप्य तत्त्व का सन्देह है। मुख का विकार आदि क्रोध के उपशम का विरोधी जो क्रोध का अनुपशम है उसका कार्य । राग आदिके कलंक से रहित ज्ञान का संबंध असत्य के विरुद्ध सत्य का कारण है। रोहिणी का उदय, पुष्य नक्षत्र का जो उदय है उसके विरोधी मृगशीर्ष नक्षत्र के उदय से पूर्वचर है । पूर्व फल्गुनी का उदय मृगशीर्ष नक्षत्र के उदय के विरोधी मघा नक्षत्र के उदय से उत्तरचर है । सम्यग् दर्शन मिथ्याज्ञान के विरोधी सम्यग् ज्ञान का सहचर है।
विवेचनाः-भावात्मक विरोधी धर्म अभाव को सिद्ध करता है, इसलिये विधिरूप हेतु अभाव का साधक है। जिसका निषेध इष्ट है, विधिरूप हेतु उसका विरोधी है, अतः विरुद्ध कहा जाता है । विरुद्ध की प्रतीति से अभावरूप साध्य को सिद्धि होती है अत: यह हेतु विरुद्धोपलब्धि नाम से भी कहा जाता है। इसके सात भेदों में से प्रथम भेद स्वभाव विरुद्धोपलब्धि है। अनेकान्त का ज्ञान होता है, उसके द्वारा सर्वथा एकान्त का अभाव है यह इसका उदाहरण है।