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एकान्त और अनेकान्त के विरोध की प्रतीति में सहायक कारण है । मुख्य हेतु अनेकान्त की उपलब्धिरूप है, अतः विरोधी स्वभाव की उपलब्धि विधिरूप है. अभावात्मक अनुपलब्धिरूप नहीं है। इतना तत्त्व ध्यान में रहना चाहिये ।
दूसरा उदाहरण-विरुद्धव्याप्तोपलब्धि का है। इस पुरुष को तत्वों में निश्चय नहीं है, तत्वों में संदेह होने से । इस उदाहरण में जीव-अजीव-आश्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा
और मोक्ष-ये तत्त्व हैं इनमें निश्चय निषेध्य है। निश्चय से विरूद्ध अनिश्चय है उससे व्याप्त संदेह की उपलब्धि है । अनिश्चय ग्यापक है और सन्देह व्याप्य है । जब भ्रम होता है अथवा अनध्यवसाय होता है-तब अनिश्रय है, परन्तु सन्देह नहीं है। सन्देह जब होता है तब अनिश्चय अवश्य होता है। अनिश्चय के बिना संदेह नहीं होता, अतः अनिश्चय व्यापक है और सन्देह व्याप्य है । जहां अनिश्चय है वहां निश्चय का अभाव है इस रीति से सन्देह के द्वारा निश्चय का अभाव सिद्ध होता है।
मुह में विकार दिखाई देता है, इसलिये इस पुरुष में क्रोध की शान्ति नहीं हैं। इस अनुमान में मुख के विकारों की प्रतीति विरुद्ध कार्योपलब्धिरूप है। यहां क्रोध का उपशम निषेध्य है--उसके विरूद्ध अनुपशम है, उसके काय मुख के विकार हैं मुख का अरुण वर्ण होठों का फरकना, आंखों का लाल होना, इत्यादि विकार क्रोध के कार्य हैं । इन कार्यों से क्रोध के उपशम का अभाव सिद्ध होता है ।
इसका वचन असत्य नहीं, राग प्रादि के कलंक से रहित ज्ञानवाला होने से, यह उदाहरण विरुद्ध कारणोपलब्धिरूप है। यहां असत्य निषेध्य है, उसके विरुद्ध सत्य है ।