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परप्रतिपस्या न दृष्टान्तादिवचनम, पक्षहेतुपचनादेव परप्रतिपत्तः,
अर्थः-पक्ष और हेतु के वचनरूप दो अवयव ही श्रोता के ज्ञान के कारण हैं । दृष्टान्त आदि का वचन कारण नहीं है । पक्ष और हेतु के वचन से ही श्रोता को ज्ञान हो सकता है।
विवेचना:-परार्थानुमान अन्य के लिये है, जितने से अन्य को ज्ञान हो सके उतने अवयवों का प्रयोग करना चाहिये । जो मनुष्य निपुण है वह पक्ष और हेतु के वचन से जान सकता है; अतः उसके लिये इन दो अवयवों का ही प्रयोग करना चाहिये। नयायिक प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, और निगमन इन पांच अवयवों का और बौद्ध, व्याप्ति सहित दृष्टान्त और हेतु इन दो अवयवों का प्रयोग परार्थानुमान में आवश्यक मानते हैं । उनका मत युक्त नहीं है । जैन मत के अनुसार पक्ष और हेतु के वचन से हो साध्य की सिद्धि हो सकती है इसलिये इन दोनों का ही प्रयोग निपुण प्रतिपाद्य पुरुष के लिये करना चाहिये।
मूलम्:-प्रतिबन्धस्य तत एव निर्णयात, तस्मरणस्यापि पक्षहेतुदर्शनेनैव सिद्धः, असमथितस्य दृष्टान्तादेः प्रतिपत्त्यनङ्गत्वात्तत्समर्थनेनैवान्यथासिद्धेश्च । समर्थनं हि हेतोरसिद्धत्वादिदोषानिराकृत्य स्वसाध्येनाविनाभावसाधनम, तत एव च परप्रतीत्युपपत्तौ किमपरप्रयासेनेति ?