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जब किसी प्रतिपाद्य को पक्ष आदि के स्वरूप में परस्पर विरोधी ज्ञान होते हैं तब पक्षशुद्धि आदि का प्रयोग भी करना चाहिये । पक्ष और हेतु आदि में जो दोष हैं उन दोषों का निराकरण पक्ष शुद्धि आदि कहा जाता है। परार्थानुमान का जो वाक्य है उसके पक्ष आदि पांच अवयव हैं। उन अव. यवोंकी शुद्धि भी पांच प्रकार की है। इस रीति से अनुमान वाक्य के दश अवयव हो जाते हैं।
जब स्वार्थानुमान होता है तब पक्ष, साध्य और हेतु आदि के क्रम का अनुभव नहीं होता। व्याप्ति का ज्ञाता पुरुष हेतु को देखकर ही साध्य को सिद्ध कर लेता है। वह पक्ष की रचना करके अनन्तर हेतु को और उसके उत्तर काल में दृष्टांत आदि को नहीं जानता। तो भी जब प्रतिपाद्य पुरुष के लिये परार्थानुमान का प्रयोग करता है तब प्रतिपाद्य की घशा के अनुसार क्रम से अथवा क्रम के बिना पक्ष हेतु भादि का प्रयोग हो सकता है । स्वार्थानुमान के काल में पक्ष आदि का क्रम अनुमव में नहीं आता। यह भी एकान्त रूप से युक्त नहीं है। कोई ज्ञाता स्वार्थानुमान के काल में भी क्रम से साध्य को जान सकता है । जो प्रतिपाद्य पक्ष आदि के अभाव में साध्य की सिद्धि नहीं कर सकता उसके लिये पक्ष आदि का भी प्रयोग आवश्यक है। समस्त प्रतिपाद्यों को केवल पक्ष से अथवा केवल हेत से साध्य की सिद्धि नहीं होती। अतः भिन्न भिन्न प्रतिपाद्यों के अनुसार हेतु के समान पक्ष आदि का भी प्रयोग करना चाहिये । बौद्ध लोग हेतुं और दृष्टान्त इन दो अवयवों का ही प्रयोग प्रायः करते हैं। उनके अनुसार अत्यंत उत्कृष्ट बुद्धिवाले केवल हेतु से साध्य की सिद्धि कर सकते हैं, तो भी उनको अपेक्षा न्यून बुद्धिवालों के लिये