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में समर्थ है इस प्रकार व्याप्ति के कारण अमावरूप साध्य की सिद्धि में भी समर्थ है। इसी रीति से निषेधरूप हेतु व्याप्ति के बल से जिस प्रकार प्रभावरूप साध्य की सिदिध में समर्थ है इस प्रकार भावरूप साध्य की सिद्धि में भी समर्थ है। प्रत्येक अर्थ जैन मत के अनुमार सत्-असत् रूप है । उसमें सत् अंश भाव है और असत्-अंश अभाव है। विधिरूप हेतु दो प्रकार का है विधि साधक और प्रतिषेध साधक । इन दोनों में जो विधि रूप हेतु विधि का साधक है वह छः प्रकार का है। ये छ: प्रकार व्याप्य-कार्य-कारणपूर्वचर-उत्तरचर--और सहचर भेद से होते हैं।
मलमः-तद्यथा-कश्चिद्वयाप्य एव, यथा शब्दोऽनित्यः प्रयत्ननान्तरीयकत्वादिति । · यद्यपि व्याप्यो हेतु सर्व एव, तथापि कार्याध. नात्मव्याप्यस्यात्रग्रहणादभेदः, वृक्षः शिंशपाया इत्यादेरप्यत्रवान्तवः ।
अर्थ-ये छः प्रकार इस रीति से, कोई हेतु व्याप्य ही होता है जिस प्रकार-शब्द अनित्य है, प्रयत्न द्वारा उत्पन्न होने से । यद्यपि समस्त हेतु व्याप्य ही होते हैं। तो भी यहां जो हेतु कार्य आदि रूप नहीं है और व्याप्य है उसी का ही ग्रहण है अतः भेद है। यह वृक्ष है शिशपा होने से-इत्यादि हेतु का भी इसी में अन्तर्भाव है।