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में कोई प्रमाण नहीं है । इस विरोध के अभाव में विरुद्ध धर्म का संबंध रूप विपक्ष का बाधक प्रमाण उपस्थित नहीं होना । विपक्ष बाधक प्रमाण के अभाव में चतन्यरूप मूल हेतु की उत्पत्ति के प्रभाव के साथ व्याप्ति सिद्ध नहीं हो सकती। सांख्य के मत में जिस प्रकार चेतन में उत्पत्ति नहीं इस प्रकार अचेतन में भी नहीं है। व्याप्ति का अभाव होने से चेतनत्व रूप हेतु अप्रयोजक हो जायगा। बुद्धि चेतन हो और उत्पत्ति वाली भी हो इस प्रकार कोई भी प्रतिवादी कह सकता है। इसलिये 'बुद्धि अचेतन है, उत्पत्ति वाली होने से यह सांख्य का अनुमान प्रसंगरूप भी नहीं हो सकता। प्रतिवादी जन जब न्याय के मत में प्रसंग का प्रयोग करता है तब प्रसंग का विपर्ययरूप जो मूल हेतु है उसकी साध्य के साथ व्याप्ति में विरुद्ध धर्म का सबंध रूप कारण विद्यमान है। एकान्त रूप से जो एक है वह किसो एक नियत पदार्थ में ही रह सकता है वह अन्य पदार्थ में नहीं रह सकता नियत पदार्थ में वृत्ति और अवृत्ति परम्पर विरोधी हैं । परस्पर का त्याग करके य दोनों रहती है इसलिये इन दोनों में परस्पर परिहाररूप विरोध है। इस विरोध के कारण यहां जो हेतु है वह विरुद्ध से व्याप्त अर्थ का उपलब्धि रूप हो जाता है। एकत्व से विरुद्ध अनेकत्व है उससे व्याप्त अनक अर्थो में वत्ति है इसलिये जैन कहता है-'जो अनेक में रहता है वह अनक है और सामान्य अनेक में रहता है।
-: हंतुः प्रयोग के दो भेद :
मूलम्:-हेतुः साध्योपपत्त्यन्यथानुपपत्तिभ्यां द्विधा प्रयाक्तव्यः, यथा पर्वतो वहिन