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विरोधी है और अनेकत्व अनेक व्यक्तियों में वृत्तिका व्यापक है । सामान्य में विरोधी ऐक्य की सत्ता है अतः अनेक व्यक्तियों में सामान्य की वृत्ति नहीं होनी चाहिये । इस रीति से यदि ऐक्यरूप धर्म स्वीकार किया जाय तो अनेक व्यक्तियों में वत्तिरूप धर्म के अभावरूप अन्य धर्म को अवश्य स्वीकार करना पडेगा । इस प्रकार जैन प्रकाशित करता है।
यायिक ऐक्य के होने पर भी अनेक व्यक्तियों में सामान्य की वत्ति को स्वीकार करता है । अनेक व्यक्तियों में वत्ति के अनाव को नहीं मानता। अतः प्रसंग विपर्यय नाम का मूल हेतु यहां पर उठकर खड़ा हो जाता है । यह मूल हेतु विरुद्ध ध्यापकोपलब्धि रूप है । निषेध्य से जो विरुद्ध है उस से व्याप्त पर्म की उपलब्धि विरुद्ध व्याप्त उपलब्धि कही जाती है। एकस्प यहां निषेध्य है, उसके विरुद्ध अनेकत्व है उससे व्याप्त बनेक व्यक्तियों में वृत्तिरूप धर्म है। उसकी उपलब्धि यहां पर है। इसकी अपेक्षा से व्यापक विरुद्धोपलब्धिरूप प्रसंग का उल्लेत्र हुआ है-अतः विरुद्ध व्याप्तोपलब्धि मूल हेतु है। जिसकी अनेक में वृत्ति है वह अनेक होता है । सामान्य को अनेक में वृत्ति है इस रूप से मूल हेतु का प्रयोग हो सकता है । जैन और नैयायिक सामान्य को अनेक व्यक्तियों में वृत्तिवाला स्वीकार करते हैं। इसलिये यह हेतु वादी और प्रतिवादी के मत में सिद्ध है। केवल प्रतिवादी के मत में सिद्ध नहीं है अतः वस्तु का निश्चय कर सकता है मूल हेतु को प्रकाशित करने के लिये प्रसंग सहायक है, अतः प्रसंग का उल्लेख पहले किया है।
यहां पर आक्षेप को दूर करता हुआ सिद्धान्ती कहता है-सत्यम्, जो आप कहते हैं वह सत्य है यह अर्थ यहां पर