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स्वरूप भिन्न है । जिस काल में उत्पत्ति होती है उस काल में कारण का स्वरूप पहले की अपेक्षा भिन्न है । स्वरूप का यह भेद पर्यायों की अपेक्षा से अर्थ में उत्पत्ति और विनाश के अभाव को दूर करता है। कार्य की उत्पत्ति से पूर्व काल में कार्य का जो स्वरूप है यदि वही रहे तो किसी भी काल में कार्य की उत्पत्ति नहीं होनी चाहिये ।
मित्यत्व आदि में अर्थ क्रिया की नियामकता का अभाव क्लेश के बिना सिद्ध हो सकता है इस प्रकार ग्रन्थकार कहते हैं । यहाँ आदि पद से अनित्यत्व का ग्रहण है । यदि अर्थ एकान्तरूप से अनित्य हो तो भी कार्य की उत्पत्ति और विनाश नहीं हो सकता । बौद्ध लोग समस्त अर्थों को क्षणिक मानते हैं । उनके अनुसार प्रत्येक क्षण में उत्पत्ति और विनाश होता है । वस्तु का कोई स्वरूप स्थिर नहीं है । जंन मत के अनुसार इस प्रकार का कोई अर्थ नहीं जो सर्वथा स्थिति से रहित हो । एकान्तरूप से अनित्य अर्थ जनमत में असत् है । यहां भी खडरूप से प्रसिद्धि हो सकती है । द्रव्यरूप से उत्पत्ति और विनाश का अभाव प्रसिद्ध है । अर्थरूप विशेष्य प्रसिद्ध है और उत्पत्ति तथा विनाश प्रसिद्ध है । जब जैन कहता है - अर्थ एकान्तरूप से अनित्य नहीं तब वह 'अर्थ के साथ स्थिति के अभाव का सबध नहीं, इस प्रकार प्रतिपारित करता है। स्थिति का प्रभाव समस्त अर्थों में बौद्ध मत के अनुसार प्रसिद्ध है। जैनमत में भी पर्यार्यो में स्थिति का अभाव है । इस अभाव का संबंध द्रव्य की अपेक्षा से अर्थ में नहीं है। यदि द्रव्य की अपेक्षा से अर्थ की स्थिति न हो, तो प्रथम क्षण में जो अर्थ है वह द्वितीय क्षण में सर्वथा नहीं है। अतः कार्य की उत्पत्ति नहीं होनी चाहिये । अभाव से कार्य
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