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मानेयं शाक्यशास्त्रेऽपि । परानुग्रहार्थ शास्त्रे सत्प्रयोगश्च वादंऽपि तुल्यः, विजिगोषणा नपि मन्दमनोनामर्थप्रत्तरते.तत एवोपात्तानि ।
अर्थः- इसके अतिरिक्त अन्य भी कारण है । यदि प्रतिज्ञा प्रयोग के लिये योग्य न हो तो शास्त्र आदिमें भी उसका प्रयोग नहीं होना चाहिये । परन्तु बौद्ध शास्त्र में भी इसका प्रयोग देखा जाता है । अन्य पर कृपा करने के लिये शास्त्र में प्रतिज्ञा का प्रयोग यदि उचित हो तो वाद में भी यह वस्तु समान है । मन्द बुद्धिवाले विजयाभिलाषी लोगों को भी पक्ष के प्रयोग से ही अर्थ का ज्ञान हो सकता है।
विवेचना:- यदि पक्ष के प्रयोग में दोष हो तो बौद्धों को भी स्वयं पक्ष का प्रयोग नहीं करना चाहिये । परस्त बौद्र शास्त्रों में प्रतिज्ञा का प्रयोग देखा जाता है। यहां . अग्नि है, कारण, धूम है। यह वृक्ष है कारण शिंशपा हैइत्यादि वचन बौद्धों के शास्त्रों में दिखाई देते हैं। प्रति. वादियों के साथ जब विवाह होता है तब भी प्रतिवादियों के हेतुओं को यह हेतु असिद्ध है और यह हेतु विरुद्ध है इत्यादि रूप से बौद्ध कहता है। यह प्रयोग स्पट ही पक्षरूप में है । लोगों को शास्त्र का ज्ञान देने के लिये शास्त्र की रचना करते हैं । सामान्यजनों के ज्ञान में प्रतिज्ञा का प्रयोग उपयोगी है इसप्रकार यदि कहा जाय तो वाद में भी इस कारण से प्रतिज्ञा का प्रयोग उचित हो जाता है। जिस