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अभिव्यक्ति को ही सामान्य लोग नत्पत्ति कहते हैं। जैन के मत में कार्य की उत्पत्ति है वह पर्यायों की उत्पत्ति और विनाश को मानता है । जैन आगम से उत्पत्ति सिद्ध है अतः सांख्य उत्पत्तिमत्व अर्थात् उत्पत्तिरूप हेतु से बुद्धि को मचेतन सिद्ध करता है। सांख्य के अनुमार शगेर आदिसे भिन्न आत्मा चैतन्यरूप है और नित्य है । बुदिध आदि काय प्रकृति के विकार हैं । प्रकृति जड है, अतः बुद्धि आदि उसके विकार भी जड हैं । जैन मत के अनुसार आत्मा सर्वथा उत्पत्ति और विनाश से रहित नहीं है वह शनरूप है और द्रव्यरूप से नित्य है । वृक्ष आदिके विषय में जो ज्ञान होते है वे ज्ञान पर्यायरूप है। पर्यायों की उत्पत्ति और विनाश होता है । जब वृक्ष का ज्ञानरूप पर्याय होता है तब पुस्तक का ज्ञान नहीं। और जब पुस्तक का ज्ञानरूप पर्याय उत्पन्न होता है तब वृक्ष का ज्ञानरूप पर्याय नहीं रहता। परन्तु दोनों पर्यायों में ज्ञानरूप द्रव्य विद्यमान है । पर्यायरूप ज्ञान से ज्ञानरूप दम्य भात्मा-सर्वथा भिन्न नहीं है। पर्यायज्ञानों को अपेक्षा से उत्पत्तिवाला होने पर भी ज्ञानात्मक द्रव्य आत्मा-नित्य है। यहीं साख्य के साथ जैन का विरोध है । सांख्य पर्यावात्मक ज्ञान को चैतन्यरूप नहीं स्वीकार करता । उसको वह चैतन्य से रहित मानता है । सांख्य के अनुसार वृक्ष आदिका प्रकाशक ज्ञान बुद्धि का परिणाम है। बुद्धि वृक्ष पुस्तक भाति अर्थों को प्रकाशित करती है परन्तु अचेतन है. । दीपक सूर्य आदिका प्रकाश वृक्ष पुग्तक, आदि अर्थों को प्रकाशित करता है परन्तु अचेतन है । दीपक आदिके समान बुद्धि प्रका. शक और अचेतन । । इस अचेतनता को सिद्ध करने के लिये