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की उत्पत्ति नहीं होती । कुंडल मादि पर्यायों में सुवर्ण की अनुगतरूप से प्रतीति होती है, वह भी नहीं होनी चाहिये । कटक और कुडल आदिके रूप में सुवर्ण का विकार होता है। जब क्टक है तब कुंडल नहीं और जब कुंडल है तब कटक नहीं, परन्तु दोनों पर्यायों के काल में सुवर्ण विद्यमान है। यदि द्रव्यरूप से स्थिति न हो तो कटक आदिके काल में सुवर्ण का ज्ञान नहीं होना चाहिये । इस रीति से समस्त कालों में अर्थ के साथ उत्पत्ति और विनाश के संबंध को द्रव्यार्थ की अपेक्षा से जन निषिद्ध करता है ।
[ परार्थ अनुमान का निरूपण ]
मूलम:- पर्थं पक्षहेतुवचनात्मकमनुमानमुपचारात, तेन श्रोतुग्नुमानेनार्थबोधनात् ।
अर्थ :- पक्ष और हेतु का वचन परार्थ अनुमान है। पक्ष और हेतु का प्रतिपादक वचन उपचार से अनुमान कहलाता है । उसके द्वारा श्रोता अनुमान से अर्थ को समझता है ।
विवेचनाः1:- प्रमाण के सामान्य लक्षण के अनुसार प्रमाण ज्ञानरूप ही होता है। पक्ष और हेतु के वचन जडरूप हैं। इसलिये वे अनुमानप्रमाण नहीं हो सकते । यहां पर जो वचन को अनुमानप्रमाण कहा है, उसका कारण उपचार है। मुख्य अर्थ का बाध जब होता है तब उपचार का प्रयोग होता है । यहां पर दो रीति से उपचार हो सकता है। कारण में कार्य का और कार्य में कारण का उपचार किया जाता है। प्रथम पक्ष के अनुसार यहां पर प्रमाण शब्द का