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विरोधी ज्ञान को दूर करके जिस प्रकार चक्ष इन्द्रिय के अनुकूल होता है। इस प्रकार तर्क व्यभिचाररूप विरोधी शका को दूर करके अन्वय और व्यतिरेक सहचार के ज्ञानरूप प्रत्यक्ष प्रमाण के अनुकूल हो जाता है।
मूलम्:-तन्न व्याप्तिग्रहरूपस्य तर्कस्य स्वपरगावमानियन स्वत प्रमाणत्वात , पराभि. मततर्कप्यापि क्वचिदेन द्विचाराङ्गनया,विषययपयवसायिन आहायशङ्काविघटकतया, स्वा. तन्येण काडामात्रविघटकतया वोपयोगात ।
अर्थः-नैयायिकों का यह कथन युक्त नहीं । व्याप्ति का ज्ञानरूप तर्क स्व और परका व्यवमायी होनेसे स्वतः प्रमाण है । नैयायिक जिम तर्क को स्वीकार करते है वह किसी काल में विपर्यय के रूप में होकर आहार्य शंका को दूर करता है और उसके द्वारा व्याप्ति के विचार में अंगरूप हो जाता है । जैन जिस तर्क को मानते हैं वह तक व्याप्ति का विचार करता है । उस विचार में नैयायिकों द्वारा माना हुआ तर्क अंगरूप हो जाता है अथवा स्वतन्त्ररूप से शंका का निवारक होने के कारण नैयायिकों का तर्क उपयोगी हो जाता है ।
विवेचना:-आहार्य ज्ञानरूप तर्क व्याप्ति का प्रकाशक नहीं है । जैन मत के अनुसार समस्त देश और काल की साध्यसाधन व्यक्तियों का ज्ञान तर्क है और वह स्व और परका