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होता है । कहा भी है-"जो विषय पक्षरूप में है उसमें ही साध्य के साथ साधन की व्याप्ति-अन्तर्व्याप्ति है। पक्ष से भिन्न विषय में तो बहिाप्ति है"।
विवेचना:-कुछ लोग व्याप्ति के अवच्छेदकरूप में अथवा हेतु के अधिकरणरूप में ज्ञान से अनुमिति में नियतपक्ष के ज्ञान को स्वीकार नहीं करते । वे लोग पक्ष और साध्य के संबंध की प्रतीति में व्याप्ति को ही कारण मानते हैं। उनके अनुसार अन्तर्याप्ति इस विषय में कारण है। श्री वादिदेवसूरि स्याद्वादरत्नाकर में कहते हैं-जो अर्थ पक्षरूप में है उसमें साधन और साध्य की व्याप्ति अन्ताप्ति है। इस अन्ताप्ति के ज्ञान में पक्ष का ज्ञान धर्मीरूप से अवश्य होता है । वही ज्ञान नियत धर्मों में साध्य की प्रतीति कराता है। हेतु की पक्ष धर्मता नियत धर्मों के साथ साध्य की प्रतीति को नहीं कराती । व्याप्ति के बल से हेतु जिस प्रकार साध्य को प्रतीति में कारण है इस प्रकार नियत धर्मों की प्रतीति में भी कारण है।
मूलम्:-तन्नः अन्नाप्त्या हेतोः साध्य. प्रत्यायनशक्ती सत्यां बहिर्याप्नेरुद्भावनव्यर्थत्वप्रतिपादनेन तस्याः स्वरूपप्रयुक्त(क्ताs) व्यभिचारलक्षणत्वस्य, पहिर्याप्नंश्च सहचारमत्रत्वस्य लाभात , सार्वत्रिक्या व्याप्ते. विषमभेरमात्रेण भंद-ग दुर्वनत्वात् । ___अर्थः-यदि हेतु अन्तर्गति से साध्य की सिद्धि में समथ हो, तो बाहेाप्ति का प्रकाशन व्यर्थ है।