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इस रीति से रूप के अभाव की व्याप्ति उन अर्थों के साथ है जो चक्षु से प्रत्यक्ष नहीं है । बाधक प्रमाणों का अभावरूप हेतु यदि अभाव का धर्म हो तो उसके द्वारा धर्मी अभावरूप हो सिद्ध होगा ।
मूलम् - तदुक्तम्- 'नासिद्धे भावधर्मोऽस्ति, व्यभिचार्य भवाश्रयः । धर्मो विरुडोभावस्य सा सत्ता साध्यते कथम् ! ||" | प्रमाणवा. १. १९२] इति चेत् ।
अर्थ :- कहा भी है - वह हेतु जो भाव का धर्म है, असिद्ध धर्मी में नहीं रह सकता । भाव और अभाव दोनों जिसके आश्रय हैं वह व्यभिचारी हो जाता है । यदि हेतु अभाव का धर्म हो तो विरुद्ध हो जाता है । इस दशा में विकल्पसिद्ध धर्मों की सत्ता किस प्रकार सिद्ध हो सकती है ?
मूलम:-न; इत्थं वह्निमर्मस्वादिविकल्पैधूमेन बहून्यनुमानस्याप्युच्छेदापत्तेः ।
अर्थ:- यह कथन युक्त नहीं, इस रीति से तो वह्निमान का धर्म है इत्यादि विकल्पों के द्वारा धूम से वह्नि के अनुमान का भी विनाश हो जायगा ।
विवेचना :- 'पर्वत वह्निमान है-धूप होने से इस अनुहेतु है । यहाँ भी पूर्वोक्त धून हेतु बह्निमान का धर्म
मान में वह्नि साध्य है और धूम रीति से आक्षेप हो सकता है।