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प्रत्यक्षादिविरुडस्य साध्यत्वं मा प्रसाङक्ष ेदित्यनिराकृतग्रहणम् | अनभिमतस्यासाध्यत्वप्रतिपत्तयेऽभोप्सितग्रहणम् ।
अर्थ :- जिसमें शंका, विपरीत ज्ञान अथवा अनध्यवसाय हो - वही वस्तु साध्य होती है । इम तत्त्व को प्रकाशित करने के लिये अतीत विशेषण है । प्रत्यक्ष आदिके जो विद्व है वह साध्य न हो इसलिये अनिराकृत पद है । जिसको स्वयं स्वीकार नहीं करता उसकी असाध्यता को प्रकट करने के लिये अभीप्सित पद 1
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विवेचना:- जिस द्रष्टा को पर्वत में वह्निन का सन्देह है. उसके लिये वह्नि शंका का विषय है इसलिये अप्रतीत है अर्थात् अनिश्चित है । जो ज्ञाता भ्रान्त है विद्यमान होने पर भी पर्वत में बह्नि को अविद्यमान स्वीकार करता है उसके विपरीत ज्ञान का विषय वह्नि है इसलिये अप्रतीत है। जो पुरुष पर्वत में वह्नि को विद्यमान अथवा अविद्यमानरूप में नहीं जानता कोई वस्तु यहाँ है इतना ही जानता है, उसके निश्चय का विषय वहिन नहीं है, इसलिये अप्रतीत है शंका सन्देह अथवा अनध्यवसाय से युक्त मनुष्य के लिये वहिन साध्य है । पर्वत में वहिन है इस प्रकार का निश्चय जिसको है उसके लिये वहिन साध्य नहीं है ।
साध्य के ये तीन विशेषण स्वार्थ अनुमान में अनुमान करनेवाले की अपेक्षा से होते हैं । वादी और प्रतिवादी की व्यवस्था स्वार्थानुमान में नहीं होती । जो धूम को देखकर स्वयं अमान करता है उसको वह्नि का निश्चय नहीं वह