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प्रतिपस्यवसरापेक्षया तु पक्षापरपर्यायस्तदि. शिष्टः प्रसिडो धर्मी। - अर्थः-व्याप्तिज्ञान के काल की अपेक्षा से धर्म ही साध्य होता है । उस काल में यदि धर्म साध्य न हो तो व्याप्ति नहीं हो सकती । जिस काल में अनुमान के द्वारा प्रतीति होती है उस काल की अपेक्षा से साध्य धर्म से विशिष्ट प्रसिद्ध धर्मी साध्य होता है ।
विवेचना:--जिस काल में व्याप्ति का ज्ञान होता है उस काल में जो कोई धूम है वह अग्नि के बिना नहीं है, इस व्याप्ति का ज्ञान होता है। इस काल में वह्निरूप धर्म साध्य है । पर्वतरूप धर्मी साध्य नहीं है। धर्मों को लेकर इस काल में ध्याप्ति नहीं हो सकती। जिस जिस स्थान में धूम है उस उस स्थान में पर्वत नहीं हैं । अत: धूम के साथ पर्वत धर्मों की व्याप्ति नहीं है। परन्तु जिस काल में अनुमिति होती है उस काल में वह्निः रूप धर्म से विशिष्ट पर्वत धर्मो साध्य कहा जाता है। केबल पर्वत को यदि साध्य किया जाय तो कोई प्रयोजन नहीं सिद्ध होता। वह्नि और पर्वत अनुमिति से पूर्व काल में अलग अलग सिद्ध हैं । परन्तु वह्नि से विशिष्ट पर्वत अनु. मिति से पूर्व काल में सिद्ध नहीं है। अतः अनुमिति के काल को अपेक्षा से वह्नि विशिष्ट पर्वत साध्य है।
मूलम्:-इत्थं च स्वार्थानुमानस्य त्रीण्यानि 'धर्मी साध्यं 'साधनं च । तत्र साधनं गम