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इस प्रकार आचार्यदेव श्री वादिदेवसरिजी प्रतिपादन वरते हैं।
इसलिये स्वरूप से प्रयुक्त जो अव्यभिचार है वह अन्तर्व्याप्ति का स्वरूप प्रतीत होता है और बहिर्व्याप्ति केरल महचाररूप है, इस प्रकार का ज्ञान होता है । समस्त देश और काल की व्यक्तियों में वर्तमान व्याप्ति विषय के भेद से भिन्न नहीं हो सकती।
विवेचना: - जो स्वरूप समस्त देश काल के साध्य बोर साधनों को संग्रह करता है, वह स्वरूप व्याप्ति को व्यब. स्थित करता है । धूम और अग्नि की व्याप्ति में धूमत्व और अग्नित्व स्वरूप है। यह स्वरूप व्याप्ति का प्रयोगक है। ग्रह च्याप्ति अव्यभिचाररूप है । साधन-धूम साध्य अग्नि के बिना नहीं होता, यही अव्यभिचार है । एक देश काल में साध्य के साथ साधन की वृत्ति सहचार है और वह बहियाप्ति का स्वरूप है यह वस्तु स्याद्वाद रत्नाकर के वचनों से प्रतीत होती है। व्युत्पन्न बुद्धिवाले ज्ञाता के लिये पक्ष और हेतु के वघनरूप दो अवयव आवश्यक हैं। इन दो अवयवों से वह श्रोता को अनुमिति करा सकता है । इसके लिये दृशान्त आदिका वचन आवश्यक नहीं है। इस तत्त्व के प्रतिपादन के लिये वे कहते हैं व्युत्पन्नबुद्धिवाला जो ज्ञाना पक्ष और हेतु को जानता है, उसको उनसे ही व्याप्ति को स्मृति हो सकती है। परार्थ अनुमान का प्रयोग करने के लिये पक्ष और हेतु के वचनों को बोलता है। इससे व्याप्ति का स्मरण हो सकता है, व्याप्तिस्मरण के लिये यहाँ पर दृष्टान्त का वजन