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अर्थः-पक्ष का ज्ञान किसी किसी स्थान में अन्यथा अनुपपत्ति के अवच्छेदक रूप में होता है । जिस प्रकार "आकाश चन्द्र बिना जलचन्द्र संभव नहीं" यहाँ पर होता है। किसी स्थान में हेतु के अधिकरण रूप में पक्ष का ज्ञान होता है । जिस प्रकार "पर्वत अग्निवाला है, धूमवाला होने से" इस प्रयोग में-यहाँ पर पर्वत में धूम के ज्ञान से वह्नि का ज्ञान भी पर्वत में ही होता है। व्याप्ति ज्ञान के काल में तो पर्वत की अनुवृत्ति सब स्थानों में नहीं है इसलिये उस काल में पर्वत का भान नहीं होता।
विवेचना:-जल चन्द्र के लिये जल का अन्तर्वतों चन्द्र आवश्यक नहीं है। उसके लिये आकाश का चन्द्र आवश्यक है। इस रीति से आकाश चन्द्र की अनुमिति में आकाश धर्मी रूप में प्रतीत होता है। आकाश के बिना बिम्बभूत चन्द्र और प्रतिबिम्बभूत जल चन्द्र की व्याप्ति नहीं जानी जा सकती। इसलिये आकाश का पक्षरूप में ज्ञान होता है। जल चन्द्र रूप हेतु की पक्षधर्मता के कारण यहाँ पर आकाश पक्षरूप में महीं प्रतीत होता । आकाश में जल चन्द्र असंभव है। इसलिये यहाँ हेतु की पक्ष धर्मता नहीं हो सकती।
जहाँ अन्यथा अनुपपत्ति रूप व्याप्ति के अवच्छे नक रूप में धर्मों का ज्ञान नहीं होता वही अनुमिति में जो देश धर्मों रूप में प्रतीत होता है उसका कारण हेतु की पक्ष धर्मना नहीं है। समीप वर्ती बहिन से धूम उत्पन्न होता है। दूरवर्ती बहिन .