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जिसके द्वारा ज्ञानामाव की निवृत्ति म होती हो। ज्ञान स्वव्यवसायी है। उसके द्वारा जो अपने स्वरूप का प्रकाशन है वही ज्ञानाभाव को निवृत्ति है। अपने स्वरूप के प्रकाशन से ज्ञान स्वव्यवसायी कहा जाता है और इसी स्वभाव के कारण ज्ञान का जो विषय है वह ज्ञात कहा जाता है। वृक्ष का ज्ञान जब वृक्ष को प्रकाशित करता है तब अपने स्वरूप को भी प्रकाशित करता है। जब मान का ज्ञान स्वप्रकाश होनेसे प्रतीत होता है, तब वृक्ष ज्ञात है, इस प्रकार का व्यवहार होता है । ज्ञान का शान यदि न हो तो-अर्थ ज्ञात है-यह व्यवहार नहीं हो सकता । “मुझे ज्ञान है" इस प्रकार जो मनुष्य नहीं जानता वह मुझे वृक्ष का अथवा अन्य विषय का ज्ञान है इस प्रकार व्यवहार नहीं कर सकता । इस रोति से स्वव्यवसाय ज्ञान का स्वभाव है और वह ज्ञानामाव की निवृत्तिरूप है । यह व्यवसाय ज्ञानमात्र का स्वभाव है इसलिये अज्ञान निति सामान्य रूप से ज्ञानमात्र का फल है। पथार्थ ज्ञान ही नहीं, संवेह और भ्रमरूप अयथार्थ ज्ञान भी ज्ञानाभाव की निवृत्ति करते हैं। मुझे संदेह और भ्रम हुमा है, इस प्रकार का ज्ञान सन्देह भौर भ्रम के अभाव की निवृत्ति. रूप है। इसलिये ज्ञानाभावरूप अज्ञान को नियति सामान्य रूप से ज्ञान मात्र का फल है । वह विशेष रूप से तकं प्रमाण का फल नहीं है। इसलिये जब 'अज्ञान को निवृत्ति तक का फल है। इस प्रकार कहा जाय तो अज्ञान का अर्थ शंकारूप अज्ञान करना चाहिये। शंका को निवृत्ति तकरूपवान का
विशेषफल हो सकता है
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