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यदि विपक्ष में असत्त्व हेतु का लक्षण न हो तो पर्वत में अग्नि को सिद्धि के लिये प्रमेयत्व हेतु हो जाना चाहिये । " पर्वतो वह्निमान् प्रमेयत्वात् " इस प्रकार के प्रयोग का कर्ता प्रमेयत्व हेतु से पर्वत में अग्नि की अनुमिति करता है । यथार्थ ज्ञान का जो विषय है वह प्रमेय कहलाता है । इस हेतु में पक्षसत्त्व और सपक्षसत्त्व ये दो धम है । पक्ष पर्वत है और वह प्रमेय है । सपक्ष रसोईघर है वह भी प्रमेय है । परन्तु विपक्ष में असत्त्व रूप जो तृतीय धर्म है वह प्रमेयत्व हेतु में नहीं है । वह्नि से रहित जलहव आदि विपक्ष हैं, उनमें भी प्रमेयत्व है । जलहद आदि का यथार्थ ज्ञान होता है इसलिये वे प्रमेय हैं। विपक्ष में विद्य मान होने से प्रमेयत्व हेतु अनेकान्तिक है । विपक्ष में असत्त्व यदि आवश्यक न हो तो अनैकान्तिकता का निषेध नहीं हो सकेगा। इन तीन दोषों का निराकरण न हो तो अनुमान की उत्पत्ति नहीं होगी ।
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मूलम: - तन्नः पक्षधर्मत्वाभावेऽपि उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयाद् उपरि सविता भूमेरालोकववाद, अस्ति नभश्चन्द्रां जलचन्द्रादित्याधनुमानदर्शनात ।
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अर्थ : - यह कथन युक्त नहीं है। पक्ष धर्मता के अभाव में भी " शकट नक्षत्र का उदय होगा - इस काल में कृत्तिका नक्षत्र का उदय होने से" "सूर्य ऊपर है, प्रकाश वाली पृथ्वी के होने से "आकाश में चन्द्र हैजल में चन्द्र होने से" इत्यादि अनुमान देखे जाते हैं ।