________________
१८७
रण- प्रत्यभिज्ञानोपजनितस्तर्क एव तत्प्रतीतिमाधातुमलम् ।
अर्थ:- इस विषय में हेतु इस प्रकार है - अव्यभिचाररूप व्याप्ति स्वरूप से प्रयुक्त है । इस व्याप्ति के विषय में अनेक बार के दर्शन से युक्त अन्वय और व्यतिरेक की सहायता को लेकर भी प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं होती. कारण - यह व्याप्ति प्रत्यक्ष का विषय नहीं है और जो व्याप्ति समस्त साध्य और साधन व्यक्तियों को लेती है उसके ज्ञान में तो सर्वथा शक्ति नहीं है, अतः साध्य और साधन के दर्शन स्मरण और प्रत्यभिज्ञान से उत्पन्न तर्क ही व्याप्ति ज्ञान को उत्पन्न कर सकता है ।
विवेचना:- व्यभिचार का अभाव व्याप्ति का लक्षण है। जहाँ साध्य नहीं है वहाँ साधन की वृत्ति का अभाव - व्यभिचाराभाव है, यही व्याप्ति है। जहाँ वह्नि नहीं वहाँ घूम नहीं रहता, इस कारण साध्य वह्नि के साथ घूम की व्याप्ति कही जाती है । साध्य और साधन का स्वरूप अव्यभिचाररूप व्याप्ति का प्रयोजक है । जहाँ वह्नि और धूम साध्य - साधन है वहाँ वह्नि का स्वरूप बह्नित्व और धूमत्व व्याप्ति का प्रयोजक है। यह स्वरूप और आकार आदिसे निवृत्त होकर अपने स्वरूप में मी व्याप्तिरूप सम्बन्ध को प्रकाशित करता है। देश और काल के बिना अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का ज्ञान होता है ।
घूम का स्वरूप
अन्य देश. काल