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प्रकार का भी हो सकता है जो साधन की शक्ति में वृद्धि कर सकता है। शक्ति की वृद्धि भी अपने विषय में ही होती है। जब चक्ष रोग के कारण रूप को देखने में असमर्थ हो जाती है, तब अंजन के द्वारा संस्कार पाकर स्पष्ट देखने लगती है। अन्वय और व्यतिरेक प्रत्यक्ष में जिस संस्कार को उत्पन्न करते हैं उनके द्वारा प्रत्यक्ष अपने विषय को स्पष्टरूप से प्रकाशित कर सकता है । अग्नि और धम का जो स्वरूप सामने है वही चा का विषय है। समस्त व्यक्तियों का संग्रह करनेवाला जो वह्नित्व और धूमत्वरूप है वह समस्त व्यक्तियों के संबंधी स्वरूप में प्रत्यक्ष का विषय नहीं है । इसलिए स्वरूप से प्रयुक्त अध्यभिचाररूप व्याप्ति प्रत्यक्ष का विषय नहीं है। इस कारण अन्वय और व्यतिरेक सहायता देकर प्रत्यक्ष को व्याप्ति के ज्ञान में समर्थ नहीं कर सकते।
मन के द्वारा भी समस्त व्यक्तियों के व्यापक स्वरूप. वाली व्याप्ति का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। बाह्य विषयों में मन बाह्य इन्द्रियों की सहायता लेकर प्रवृत्ति करता है। स्वतन्त्र रूप से बाह्य विषयों में मन प्रवृत्ति नहीं कर सकता। बहि और धूम आदि में जो व्याप्ति है वह बाह्य अर्थ का धर्म है, अतः बाह्य है । उसको स्वतन्त्र रूप से मन नहीं जान सकता। इस कारण तीन काल के सम्बन्धी वह्नि और धूम आदिको ध्याप्त को जानने में बाह्य इन्द्रियों से और मन से उत्पन्न प्रत्यक्ष असमर्थ है।
इस प्रकार की व्याप्ति के ज्ञान के लिये कोई अन्य प्रमाण होना चाहिये। यह प्रमाण तर्क है। तीन काल के सम्बन्धी साध्य और साधन उसके विषय हैं। यह तर्क ज्ञान प्रत्यक्ष के समान स्पष्ट नहीं-परन्तु भस्पष्ट है।