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समान उसका किसी कालमें दर्शन नहीं होना चाहिये । इस प्रकार का आक्षेप हो सकता है । परन्तु इस रोति से यदि व्याप्ति का ज्ञान हो, तो पुरोवर्ती और वर्तमानकाल में ही व्यापक वहिन के साथ धूम को व्याप्ति का ज्ञान होना चाहिये भिन्न देशकाल के जो वह्नि स य नहीं उनके साथ व्याप्ति के ज्ञान के लिये तक नामक भिन्न प्रमाण आवश्यक है। अनुमान के समान तर्क, भ्रम और संदेह को दूर करता है इसलिये प्रमाण है।
मूलम्:-यत्त 'व्याप्यस्याहार्यारोपेण व्यापकस्याहायप्रसञ्जनं तकः । स च विशेषदर्शनवद् विरोधिशङ्काकालीनप्रमाणमात्रसहकारी, विरोधि. शङ्कनिवर्तकन्वेन तदनुकूल एव वा । न चार्य 'स्वतः प्रमाणम्' इति नैयायिकैरिष्यते;
अर्थ-तर्क के विषय में नयायिकों का मत इस प्रकार है-व्याप्य के आहार्य आरोप से व्यापक का आहार्य आरोप तर्क है और वह विशेष के दर्शन के समान विरोधी शंका के काल में विद्यमान प्रमाण का सहकारी होता है अथवा विरोधी शंका का निवर्तक होने के कारण प्रमाण के अनुकुल होता है । किन्तु यह तर्क स्वयं प्रमाणरूप नहीं है ।
विवेचना:-न्याय के अनुगामी लोग तर्क के स्वरूप को भिन्न रूप में स्वीकार करते हैं । वे लोग उसको प्रमाण का सहकारी अथवा प्रमाण के अनुकूल कहते हैं । वे उसको