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होता है । साध्य
व्याप्त का यह ज्ञान स्वरूप से होता है । अग्नियाँ है उन सब का संग्रह वह्नि रूप से धूम व्यक्तियां है उन सब का संग्रह घूमत्व के स्वरूप अग्नित्व आदि के द्वारा और साधन के स्वरूप धूमत्व आदिके द्वारा व्याप्ति व्यवस्थित होती है । इस कारण अव्यभिचाररूप व्याप्ति स्वरूप से प्रयुक्त कही जाती है । इस व्याप्ति का ज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं हो सकता । जो विषय वर्तमानकाल और पुरोवर्ती देश में है उसी विषय में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति होती है। अतीत अना-: अथवा व्यवहितदूरवर्ती विषय प्रत्यक्ष का विषय नहीं है । वह्नित्व और धूमत्व इस प्रकार का स्वरूप है जो अतीत आदि समस्त अग्नि ओर घूमों का संग्रह करता है। इस प्रकार के स्वरूप में प्रत्यक्ष को प्रवृत्ति नहीं हो सकती। जो लोग प्रत्यक्ष से व्याप्ति क ज्ञान को स्वीकार करते हैं उन लोगों के अनुसार प्रथम प्रत्यक्ष में भी धूम अग्नि का सम्बन्ध प्रतीत होता है । पहली बार के प्रत्यक्ष के द्वारा जब व्याप्तिरूप सम्बन्ध का ज्ञान हो जाता है तो उत्तरकाल में अन्वय और व्यतिरेक का जो अनेक बार ज्ञान होता है वह पहली बार के प्रत्यक्ष को दृढ करता है अथवा अनेक बार के दर्शन से अन्वय और व्यतिरेक का जो ज्ञान होना है उसकी सहायता पाकर प्रत्यक्ष प्रमाण व्याप्ति को जानता है, परन्तु यह कथन युक्त नहीं ।
संसार में जितनी होता है । जितनी
दो प्रकार का प्रत्यक्ष ज्ञान है । एक इन्द्रिय से जन्य और दूसरा मन से जन्य । वर्तमान देश और काल में जो अर्थ है उसके साथ संबंध करके इन्द्रिय उसी अर्थ को प्रकाशित करती है । व्याप्ति का संबंध सकल देश-काल की व्याप्य और